आंदोलन जारी रहना चाहिए...!
जीवन मे कोई निर्णय लेना बोहोत कठिन होता है फिर चाहे वह वैयक्तिक निर्णय हो या सामाजिक. खासकर तब जब आप किसी संगठन में काम करते हो. निर्णय लेना और भी मुश्किल तब होता है जब आप संगठन में कोई महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है, संगठन की पहचान होते हैं… क्योंकि तब आपका निर्णय पूरे संगठन पर लागू होता है, उसमे काम करने वाले सारे कार्यकर्ताओ को मानना पड़ता है और इसकी वजह से कोई निर्णय लेने से पहले हमें उन सभी कार्यकर्ताओं के त्याग,समर्पण, बलिदान को मद्देनजर रखते हुवे ही कोई निर्णय लेना चाहिए ऐसा मैं मानता हूँ. निर्णय लेने से पहले आपको बोहोत सारी बातोंका ध्यान रखना पड़ता है, कार्यकर्ता क्या सोच रहा है, वह क्या चाहता है आंदोलन के प्रति और दल के प्रति…! मैंने हमेशा से कोई भी निर्णय लेने से पहले इन बातों का तहेदिल से ध्यान रखने की कोशिश की हैं और करता रहूंगा.
पिछले कुछ दिनोसे समता सैनिक दल दक्षिण भाग में जो उथलपुथल चल रही थी,उसका इन फोटोज ने कुछ हद्द तक जवाब दे दिया है ऐसा मैं समझता हूँ. कोई सैनिक या कार्यकर्ता खड़ा करने में, उसे बचाये रखने में कितनी मेहनत लगती है यह हम सभी को अच्छेसे पता है. करीब 4 से 5 साल से हम यहाँ समता सैनिक दल को पूरे दक्षिण भारत मे पहुंचने का काम कर रहे है. इस प्रयास में कई अच्छे लोग,कार्यकर्ता मिले जिन्होंने आंबेडकरी आंदोलन को दक्षिण भारत मे फैलाने हेतु पूरे जी जान से मेरा साथ निभाया और निभाते रहेंगे. जैसे हर संगठन में एक पड़ाव आता है ठीक वैसे ही यहाँ भी दल में कुछ अनैतिक लोगोके आनेसे दल की गरिमा और प्रतिष्ठा साख पर आ चुकी है. दल को बढ़ाने में जिन कार्यकर्ताओ ने अपना सर्वस्व अर्पण किया है उन्हें अपने आंखों के सामने समता सैनिक की गरिमा बचाने का बड़ा सवाल खड़ा हो चुका है. और सभी की यही मानसिकता बन चुकी थी के अब हम "उन लोगोके साथ काम नही नही सकते और हमे एक और नया संगठन बनाना ही पड़ेगा". इसके मद्दे नजर चूंकि मैं दल का सबसे पुराना सैनिक हूँ, सभी ने मुझसे चर्चा की और आगे की रणनीति और दल को दुबारा खड़ा करने का आग्रह किया. इस विषम परिस्थिति में मेरे सामने सबसे बड़ा सवाल जो खड़ा था वह यह के “क्या मुझे फिरसे कोई संगठन खड़ा करना चाहिए?” क्या फिर से एक नई शुरुवात करनी चाहिए, फिरसे निर्माण की प्रक्रिया शुरू करनी चाहिए…? दिमाग मे सिर्फ कार्यकर्ताओ को बांधे रखने की बात है,उन्हें न तो दल से दूर किया जा सकता था और न ही कोई नया संगठन खड़ा करने की मंशा मेरे दिलो-दिमाग में थी. एक तरफ दल के कार्यकर्ताओ को साथ मे रखना, उन्हें फिर से दिशाभूल होनेसे बचाने का जिम्मा और दूसरी तरफ मेरा वैयक्तिक जीवन,मेरा कैरियर,Phd की पढ़ाई और घर की जिम्मेदारी… मैं अब इस परिस्थिति में नही था के कुछ नया और अलग किया जाए, फिरसे अपनी ज़िंदगी के बहुमूल्य साल/समय निर्माण की प्रक्रिया में व्यर्थ करू. करियर और परिवार को समय देना इस वक्त मेरी सबसे बड़ी प्राथमिकता है. इन सभी चीजों को दृष्टि में रखकर मुझे ऐसा लगा के कोई नया दल बनाने से अच्छा है, जो संगठन पहले से आंदोलन में सक्रिय है, और जिस संगठन में मैं पहले काम कर चुका हूँ, उनके साथ "सामंजस्य(कोआर्डिनेशन) से काम करना" इस समय में सबसे बेहतर उपाय होगा. जिससे मैं कार्यकताओ में जो निराशभरा वातावरण है उसे शांत कर सकता हूँ, कार्यकर्ताओ को दिशाभूल होने से बचा सकूँगा और एक नया दल बनने से रह जायेगा. बाबासाहेब अम्बेडकर के सामने कोई नया धर्म देना चाहिए या अस्तित्व में जो है उनमें से कोई एक धर्म चुनना चाहिए यह बात मेरे दिमाग मे घूम रही थी. जिस तरह बाबासाहेब ने जो अस्तित्व में है, औऱ पूर्णतः भारीतय धर्म है उसे चुना, मेरा यह निणर्य भी उनके इसी निणर्य से प्रेरित हैं..! कोई नया दल खड़ा करने और यहाँके कार्यकर्ता उसे आगे ले जा सकेंगे या नही? उसे बचा सकेंगे या नही इन सवालों ने मुझे बोहित दिनोंतक आहत किया है. अंततः मैन जो निर्णय लिया है वह उन सभी कार्यकर्ताओं के भविष्य औऱ यहाँकी परिस्तिथियों को मद्देनजर रखते हुवे लिया हैं. किसीका नेतृत्व मान्य करने के लिए नही..! मेरे लिए बुद्ध और बाबासाहेब आम्बेडकर यह प्रथम और अंतिम प्रेरणा है और रहेंगे..!
यह समय कोई और संगठन खड़ा करने का नही है यह मैं भली भाँति समझता था और इसीलिए मुझे यह विकल्प अधिक ठीक लगा. सिर्फ यह सोचकर आदरणीय मार्शल विमलसूर्य चिमनकर सर और उनकी टीम को "हिंदुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड" में डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर जयंती के उपलक्ष्य में आमंत्रित किया गया था. इसी दौरान उनके साथ जो चर्चा हुई वह आशावादी चर्चा रही जिसमे इस समय अलग अलग काम करना आंदोलन के किये ठीक नही होगा, और इसलिए हम सभी को साथ मे करना पड़ेगा इस विषय पर और बाकी बोहोत सारे विषयो ओर करीब दिन भर चर्चा हुई. हम सभी एक दूसरे के साथ "सामन्जस्य (Coordination)के साथ" काम करने की इच्छा जताई और क्योंकि हमारे बीच कोई द्वेष नही था, दल को आगे बढ़ाने हेतु, हैदराबाद यह दक्षिण का केंद्र हो, सभी लोग एक साथ काम कैसे कर सकते है, समता सैनिक दल के एकीकरण पर भी आशावादी चर्चा हुई.
यहाँ जितने कार्यकर्ता मेरे साथ काम करते है उनका एक ही आग्रह था के "सर अगर आप साथ नही है, हमारे आगे नही है तो हम किसी भी दल में काम नही करंगे" मैं अपने कार्यकर्ताओं का टूटता हौसला नही देख सकता था और न ही उन्हें किसी और संगठन में शामिल होने की अनुमति दे सकता था. इससे बेहतर यही है के जो पहले से अस्तित्व में है उनके साथ यहाँ के कार्यकर्ताओं को मिलाया जाए और आगे का सफर किया जाए. यही सोचकर आदरणीय चिमनकर सर को यहां एक कार्यक्रम में बुलाया गया और बाकी चर्चाएं हुई. अगर मैं चाहता तो और एक दल खड़ा करके उसका मुखिया बन सकता था, लेकिन नेता, मुखिया बनने की इच्छा न तो पहले मेरे दिल मे थी, न है औऱ ना कभी होगी. मैन हमेशा से पूरी ईमानदारी से समता सैनिक दल को देश के कोने कोने में कैसे पहुंचाया जा सकता है यही सोच रखी थी और रहेगी.
मुझे, मेरे काम को, चारित्र्य को औऱ आंबेडकरी आंदोलन के प्रति मेरी निष्ठा को जो लोग पहचानते है, वह लोग यह भी जानते है के मैंने यह निर्णय किन परिस्थितियों की वजह से लिया है. वह लोग मेरे इस निर्णय को सही ठहराते है या गलत मैं उनके विवेक पर छोड़ता हूँ. मेरे इस निर्णय का लोग कोई और अर्थ न निकाले तो बेहतर होगा. एक विजन को लेकर काम करने की सोच रखकर आदरणीय विमलसूर्य चिमनकर सर के साथ यहां की टीम ने हाथ मिलाया है. अभी तक पूरी तरह से विलनिकरन का कोई सवाल नही है, हम एक दूसरे के साथ काम करेंगे. यहाँ के मेरे साथ काम करने वाले जितने भी कार्यकर्ता आदरणीय चिमनकर सर के साथ काम करने के मेरे सुझाव को मान्य किया है मैं उनका तहेदिल से आभारी हूं, और साथ ही आदरणीय चिमनकर सर का भी जिन्होंने कोई भी शर्त न रखते हुए पूरे दिल से दक्षिण में दल मजबूत करने की बात कही. बाकी दल एकसाथ आएंगे या नही इसपर निरन्तर काम चलता रहेगा. दोस्तो, आंदोलन को बढ़ाने के लिए सिर्फ एक ही शर्त होनी चाहिए वह है डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर के विचारों को विन्रम होना और पूरी ईमानदारी से अपनी जिम्मेदारी का वहन करना. नेतृत्व कोई भी हो, वह शास्वत नही है, शास्वत है बुद्ध और आंबेडकरी विचार, उन्होंने शुरू की हुई लड़ाई.. हम सब निमित्त मात्र है और कुछ नही…!
आपका,
Adv महेंद्र जाधव